1.
नीयत में गड़बड़ी होने से, कामना
होने से और विधि में त्रुटी होने से मंत्रोपासक को हानि भी हो सकती है. निष्काम
भाव रखने वाले को कभी कोई हानि नहीं हो सकती.
2.
हनुमानचालीसा का पाठ करने से प्रेतात्मा पर
हनुमान जी की मार पड़ती है.
3.
कार्यसिद्धि के लिये अपने उपास्यदेव से
प्रार्थना करना तो ठीक है, पर उन पर दबाव डालना, उन्हने
शपथ या दोहाई देकर कार्य करने के लिये विवश करना, उनसे हाथ करना
सर्वथा अनुचित है. उदाहरणार्थ, 'बजरंगबाण' में हनुमानजी पर
ऐसा ही अनुचित दबाव डाला गया है; जैसे- 'इन्हें मारू, तोही
सपथ राम की.', 'सत्य होहु हरि सपथ पाई कई.', 'जनकसुता-हरि-दास कहावै. ता की सपथ, विलम्ब
न लावे..', 'उठ, उठ, चालू, तोही राम दोहाई'. इस तरह दबाव डालने से उपास्य देव प्रसन्न
नहीं होते, उलटे नाराज होते हैं, जिसका पता बाद में लगता है. इसलिए मैं 'बजरंगबाण' के
पाठ के लिये मना किया करता हूँ. 'बज्रंग्बान' गोस्वामी
तुलसीदासजी की रचना नहीं है. वे ऐसी रचना कर ही नहीं सकते.
4.
रामचरितमानस एक प्रासादिक ग्रन्थ है. जिसको केवल
वर्णमाला का गया है, वह भी यदि अंगुली रखकर रामायण के एक-दो पाठ कर ले तो उसको पढना आ जायेगा.
वह अन्य पुस्तकें भी पढ़ना शुरू कर देगा.
5.
रामायण के एक सौ आठ पाठ करने से भगवान के साथ
विशेष संबंध जुड़ता है.
6.
रामायण का नवाह्न-पारायण आरम्भ होने पर सूआ-सूतक
हो जाय तो कोई दोष नहीं लगता.
7.
रामायण का पाठ करने से बुद्धि विक्सित होती है.
रामायण का नावाह्न पाठ करने वाला विद्यार्थी कभी फेल नहीं होता.
8.
कमरदर्द आदि के कारण कोई लेटकर रामायण का पाठ
चाहे तो कर सकता है. भाव का मूल्य है. भाव पाठ में रहना चाहिए, शरीर
चाहे जैसे रहे.
9.
पुस्तक उल्टी नहीं रखनी चाहिए. इससे उसका निरादर
होता है. सभी वस्तुएँ भगवत्स्वरूप होने से चिन्मय है. अतः किसी की वास्तु का
निरादर नहीं करना चाहिए. किसी आदरणीय वास्तु का निरादर करने से वह वास्तु नष्ट हो
जाती है. अथवा उसमें विकृति आ जाती है, यह मेरा अनुभव है.
परमश्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी
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