_पृथिव्यां यानी तीर्थानि तानी तीर्थानि सागरे ।_
_सागरे सर्वतीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे ।।_
_चैत्रमाहात्मये तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखमाश्रिताः ।_
_सर्वांगेष्वाश्रिता देवाः पूजितास्ते तदर्चया ।।_
_अव्यक्त रूपिणो विष्णोः स्वरूपं ब्राह्मणा भुवि ।_
_नावमान्या नो विरोधा कदाचिच्छुभमिच्छता ।।_
*•अर्थात
पृथ्वी में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी समुद्र में मिलते हैं और समुद्र में
जितने भी तीर्थ हैं वह सभी ब्राह्मण के दक्षिण पैर में है । चार वेद उसके
मुख में हैं अंग में सभी देवता आश्रय करके रहते हैं इसवास्ते ब्राह्मण को
पूजा करने से सब देवों का पूजा होती है । पृथ्वी में ब्राह्मण जो है
विष्णु रूप है इसलिए जिसको कल्याण की इच्छा हो वह ब्राह्मणों का अपमान तथा
द्वेष नहीं करना चाहिए ।*
_•देवाधीनाजगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता: ।_
_ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना:तस्माद् ब्राह्मण देवता ।_
*•अर्थात्
सारा संसार देवताओं के अधीन है तथा देवता मन्त्रों के अधीन हैं और मन्त्र
ब्राह्मण के अधीन हैं इस कारण ब्राह्मण देवता हैं ।*
_ऊँ जन्मना ब्राम्हणो, ज्ञेय:संस्कारैर्द्विज उच्चते।_
_विद्यया याति विप्रत्वं, त्रिभि:श्रोत्रिय लक्षणम्।।_
*ब्राम्हण के बालक को जन्म से ही ब्राम्हण समझना चाहिए।*
*संस्कारों से "द्विज" संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से "विप्र" नाम धारण करता है।*
*जो वेद,मन्त्र तथा पुराणों से शुद्ध होकर तीर्थस्नानादि के कारण और भी पवित्र हो गया है,वह ब्राम्हण परम पूजनीय माना गया है।*
_ऊँ पुराणकथको नित्यं, धर्माख्यानस्य सन्तति:।_
_अस्यैव दर्शनान्नित्यं ,अश्वमेधादिजं फलम्।।_
*जिसके
हृदय में गुरु,देवता,माता-पिता और अतिथि के प्रति भक्ति है। जो दूसरों को
भी भक्तिमार्ग पर अग्रसर करता है,जो सदा पुराणों की कथा करता और धर्म का
प्रचार करता है ऐसे ब्राम्हण के दर्शन से ही अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त
होता है।*
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