Tuesday, 3 November 2015

सनातन धर्म में इसका निर्णय शास्त्रों से होता है


इसलिए ‘में ऐसा सोचता हु’ कहने का मतलब है मंगनत बातो में लोगो को उलझाकर उनका समय नष्ट करना है
यदि किसी कारणवश "इतिहास भूतकाल परिस्थिति , संत महापुरुष भक्त और धर्म शास्त्र ग्रन्थ" में कही मतभेद हो जाए तो किसे सर्वोपरि मानना चाहिए?
आज लोग शास्त्र तो पढते नहीं, २ बात इदर से सुनी, और ४ बात उदर से सुनी, और करना शुरू हो गए, यही मनुष्य के दुःख का कारन है
कोई कहे ऐसा करना चाहिय, वैसा करना चाहिय, ... तो उससे पहले शास्त्र परमाण(शास्त्र नाम, शलोक संख्या) मांगे.... अगर शास्त्र परमाण नहीं तो है, तो उसे यह जानकारी दे
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥१६-२३॥
भावार्थ : जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही॥23॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥१६-२४॥
भावार्थ : इससे तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य है॥24॥
(भगवद्गीता)
धर्मशास्त्र सर्वोपरि हैं

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